समता विभूति समीक्षण ध्यान योगी धर्मपाल प्रतिबोधक आचार्य-प्रवर श्री नानालालजी म.सा.

निवासी दांता
पिता का नाम श्री मोडीलालजी
माता का नाम श्रीमती सिणगार बाई
गोत्र पोखरणा
जन्म तिथि जेठ सुदी 2 वि.सं. 1977
दीक्षा तिथि पौष सुदी 8 वि.सं. 1996
दीक्षा स्थल कपासन
दीक्षा गुरू युवाचार्य श्री गणेशीलालजी म.सा.
दीक्षा के समय उम्र 19 वर्ष 7 माह 6 दिन
युवाचार्य पद तिथि आसोज सुदी 2 वि.सं. 2019
युवाचार्य पद प्रदान स्थल उदयपुर
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 22 वर्ष 8 माह 24 दिन
युवाचार्य पद के समय उम्र 42 वर्ष 4 दिन
युवाचार्य काल में दीक्षा (संतों की) 9
आचार्य पद तिथि माघ बदी 2 वि.सं. 2019
आचार्य पद स्थल उदयपुर
आचार्य पद के समय उम्र 42 वर्ष 7 माह 15 दिन
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 23 वर्ष 9 दिन
आचार्य शासनकाल 36 वर्ष 9 माह 29 दिन
शासनकाल में दीक्षा (संतों की) 59
कुल आयु 89 वर्ष 5 माह 14 दिन
विवाहित/ अविवाहित अविवाहित
स्वर्गवास तिथि कार्तिक बदी 3 वि.सं. 2056
स्वर्गवास स्थल उदयपुर

आचार्य श्री नानेशः व्यक्तित्व एवं कृतित्व

विश्वप्रसिद्ध कर्मवीरों और धर्मवीरों की भूमि मेवाड राजस्थान का छोटा-सा दांता गांव जो भोपालसागर, कपासन के नजदीक प्राकृतिक शोभा और रमणीय वातावरण में बसा हुआ है, इस छोटे से गाँव में पिता श्री मोडीलालजी पोखरना एवं मातुश्री श्रृंगाराबाई पोखरना के यहाँ आज से 89 वर्ष पूर्व पुत्र रूप में एक नन्हें-से शिशु ने जन्म लिया। इस शिशु का जन्म नाम गोवर्धन रखा गया किन्तु परिवार में सबसे छोटा होने के कारण तथा सयाने बालपन के कारण सभी इस नवजात शिशु को नाना नाम से संबोधित करने लगे। बाल्यकाल में ही बालक नाना के चेहरे की तेजस्विता और मुखमण्डल की आभा से ऐसा प्रतीत होता था कि यह नाना अपनी संयम साधना से आगे चलकर कुछ विलक्षण करने वाला है। बचपन का यह नाना नाम ही भविष्य में आचार्य श्री नानेश के रूप में एक दिव्य प्रभा के रूप में विकसित हुआ।

बाल्यकाल से वैराग्य की यात्रा

दांता इतना छोटा-सा गाँव है कि उस समय वहाँ प्रायः कच्चे मकान ही हुआ करते थे। आवागमन हेतु सुव्यवस्थित सडक मार्ग तक उपलब्ध नहीं था। ऐसे अविकसित गांव में अपना बाल्यकाल व्यतीत करते हुए भी बालक नाना ने अपने चिन्तन को एक नई दिशा दी और स्वयं को आत्मविकास के मार्ग पर अग्रेषित किया। एक बार चारित्र आत्मा से बालक नाना प्रवचन सुन रहे थे, प्रवचन में पांचवें आरे दुःषमा काल के पश्चात् आने वाले छठे आरे दुःषमा-दुःषमा काल का विवरण चल रहा था। दुःषमा-दुःषमा काल का वर्णन कुछ इस प्रकार कि उस समय सर्वत्र दुःख ही दुःख का बोलबाला रहेगा। जैन मान्यतानुसार इस काल में जो भी प्राणी बचेंगे, वे असहनीय दुःख-पीडा, रोग-शोक, काम-क्रोध, लोभ, भय, मद, अहंकार आदि से ग्रसित रहेंगे। सर्वत्र अशांति, कलह और पाप कर्मों की अधिकता रहेगी। व्यापार, पशुधन, वनस्पति आदि समाप्त हो जाएंगे तथा मनुष्य की आयु घटते-घटते मात्र बीस वर्ष रह जायेगी तथा उसका देहमान भी एक हाथ प्रमाण ही रह जायेगा। सर्वत्र मांसाहार का प्रयोग होने लगेगा। मनुष्य का जीवन स्तर पशुओं से भी बदतर हो जाएगा। यह विवरण सुनकर युवा हृदय नाना के विचारों में अंतर्द्वन्द हुआ कि मैंने चार गति चौरासी लाख योनियों में दुर्लभ यह मानव तन पाया है इसलिए मुझे इस भव को यों ही नहीं गंवाना है वरन् तीन मनोरथ को पूर्ण कर मुक्ति को प्राप्त करना है। मेरे जीवन के सारे प्रयास अब इसी दिशा में होने चाहिए कि मैं जीवन के अंतिम लक्ष्य (निर्वाण) को प्राप्त कर सकूं। उनके इस चिन्तन ने ही उन्हें वैराग्य पथ पर अग्रसर किया।

योग्य गुरु की प्राप्ति

जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु नाना के लिए यह आवश्यक था कि वो श्रावक जीवन से श्रमण जीवन अंगीकार करें अर्थात् आगार से अनगार बनें। इस हेतु उन्हें एक योग्य गुरु की आवश्यकता थी। योग्य गुरु की खोज हेतु उन्होंने अनेक जगह तलाश की, अनेक संत-महात्माओं के प्रवचन सुने। कई संत-महात्माओं ने उन्हें अपना चेला बनाने हेतु कई प्रकार के प्रलोभन भी दिए किन्तु वो इन प्रलोभनों से सदैव दुर रहे और योग्य गुरु की तलाश का उनका प्रयास अनवरत जारी रहा। योग्य गुरु की तलाश करते-करते नाना कोटा में विराजित तत्कालीन युवाचार्य श्री गणेशीलालजी म.सा. के पास पहुँचे। पूज्य श्री गणेशीलालजी म.सा. के प्रवचन से वे अत्यन्त प्रभावित हुए। उनके मुखमण्डल की आभा और तेज ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया। तब उन्हने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि भगवन्! मुझे इस संसारचक्र से मुक्ति प्राप्त करनी है मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ किन्तु पूज्य श्री गणेशीलालजी म.सा. सच्चे अर्थों में निःस्पृही साधक थे। उन्हें शिष्य लोभ तनिक मात्र भी नहीं था। उन्होंने तत्काल ही नाना से कहा कि साधु बनना कोई सहज कार्य नहीं है, तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने से भी अधिक कठिन एवं दुष्कर कार्य है। पाँच महाव्रतों का पालन और इन्दिय विजय करना कोई सहज बात नहीं है। अतः आवेश में अथवा जल्दबाजी में साधु बनने का निर्णय करने की अपेक्षा तुम्हारे लिए यही श्रेयस्कर है कि गृहस्थ जीवन में रहकर ही सदाचार का पालन करो। किन्तु युवा मन नाना यह समझ चुके थे कि ये ही मेरी सच्चे गुरु हो सकते हैं। ये ही मुझे इस संसार चक्र से मुक्त करने में सहयोगी बन सकते हैं।

योग्य गुरु के रूप में उन्होंने मन ही मन गणेशाचार्य को अपना गुरु मान लिया और वैराग्यवस्था में उन्हीं के साथ रहने लगे। गणेशाचार्य ने भी मुमुक्षु नाना की वैराग्यवस्था की सम्यक परीक्षा की और यह अनुभव किया कि यह वैरागी अवश्य ही भविष्य में बडा महापुरूष बनेगा। इसकी वैराग्यभावना प्रबल है अतः इसे दीक्षा दी जा सकती है। अपने गुरु से दीक्षा प्रदान करने का यथेष्ट संकेत प्राप्त कर मुमुक्षु नाना ने दीक्षा की सभी आवश्यक क्रियाओं को पूर्ण करने हेतु सर्वप्रथम अपने परिजनों से आज्ञापत्र प्राप्त करने का निवेदन किया किन्तु परिजनों ने सहज ही आज्ञा नहीं दी। तब मुमुक्षु नाना ने अट्ठम तप (तेला) की आराधना की तथा यह प्रतिज्ञा की कि जब तक आज्ञा नहीं मिलेगी मैं पारणा नहीं करूंगा। मुमुक्षु नाना की दीक्षा लेने की तीव्र भावना ने परिजनों को उनकी संयम साधना में सहयोगी बनने हेतु मजबूर कर दिया और उन्होंने यह जानकर कि सुयोग्य गुरु के सानिध्य में यह दीक्षा लेने वाले हैं, ऐसा योग्य गुरु सहज ही नहीं मिलता। यह सब सुखद संयोग जानकर दीक्षा हेतु आज्ञापत्र प्रदान कर दिया। यह क्षण मुमुक्षु नाना के लिए परमसौभाग्य का अवसर था क्योंकि जिस लक्ष्य को वो प्राप्त करना चाहते थे अब उस दिशा में आगे बढने का अवसर प्राप्त हो गया। परिजनों से आज्ञा प्राप्त होने पर मुमुक्षु नाना की दीक्षा का पावन प्रसंग उपस्थित हुआ और दांता गाँव के पास ही कपासन ग्राम में वि.सं. १९९६ पौष शुक्ला अष्टमी को चतुर्विध संघ की सहमति प्राप्त कर पूज्य श्री गणेशाचार्य ने मुमुक्षु नाना को जैन भागवती दीक्षा के प्रत्याख्यान करवाये। अपार जनसमूह जय-जयकार करने लगा। वस्तुतः यह एक ऐसा प्रसंग था जब एक सुयोग्य गुरु को सुयोग्य शिष्य की प्राप्ति हुई थी। यही मुमुक्षु नाना अब नवदीक्षित संत श्री नानालालजी म.सा. के नाम से संबोधित किए जाने लगे।

नवदीक्षित संत श्री नानालालजी म.सा. अपनी संयमीचर्या के साथ-साथ आगमों के तलःस्पर्शी ज्ञान हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते थे। संयमी क्रियाओं के अतिरिक्त उनका सारा समय ज्ञानाराधना में ही लगा रहता था। अपनी प्रखर मेघाशक्ति और तलस्पर्शी ज्ञान से वो शीघ्र ही अपने गुरु के अतिप्रिय हो गये। अल्पसमय में ही उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था तथा इन विविध भाषाओं के वो निष्णात हो गए थे। साथ ही विभिन्न धर्म-दर्शनों का गहन अध्ययन कर अपनी प्रखर प्रतिभा को उन्होंने प्रकट कर दिया था। अंग, उपांग, छेदसूत्र, चूलिकासूत्र, मूलसूत्र, न्याय, भाषा, टीका, चूर्णी आदि के वे गहन अध्येता बन गए थे। न केवल जैन दर्शन वरन् वेद, पुराण, गीता, महाभारत, कुरान जैसे अनेक धार्मिक ग्रंथों का भी आपने प्रणयन कर लिया था। उसी का परिणाम था कि आफ प्रवचनों में वाणी की ओजस्विता के साथ विचारों की गंभीरता झलकती थी।

संयमीचर्या के साथ आपकी विनयशीलता भी अत्यन्त प्रभावित करने वाली थी। अपने गुरु के इशारे मात्र से अवगत होकर तदनुरूप आप आचरण करते थे। सम्यकज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राप्ति हेतु अनेक परीषहों एवं उपसर्गों को समभावपूर्वक अपनी विशिष्ट क्षमता के साथ आपने सहन किया तथा अपनी विलक्षण प्रतिभा से अपने गुरु पूज्य श्री गणेशाचार्य को अत्यधिक प्रभावित किया। पूज्य गणेशाचार्य ने भी आफ जीवन निर्माण में अत्यधिक परिश्रम किया था।

युवाचार्य पद प्राप्ति

बात उस समय की है जब पूज्य गणेशाचार्य स्वास्थ्य की दृष्टि से उदयपुर में स्थिरवास कर रहे थे। पूज्य श्री नानालालजी म.सा. उनकी पूर्णनिष्ठा भाव से सेवा-सुश्रुषा कर रहे थे, पूज्य गणेशाचार्य के स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट को देखते हुए श्रावक वर्ग संघ के आगामी नेतृत्व को लेकर अत्यन्त चिंतित था और उन्होंने अपनी यह चिन्ता एक दिन पूज्य गुरुदेव के चरणों में रखी। गुरुदेव ने श्रावकों को आश्वस्त करते हुए कहा कि योग्य समय पर मैं संघ को अपने उत्तराधिकारी के रूप में ऐसा गुदडी का लाल दूंगा जिसे देखकर सभी आश्चर्य करेंगे और उसके द्वारा जिनशासन की जो प्रभावना की जायेगी उसे देखकर तो आप लोग भी चकित रह जाएंगे। मुनि श्री नानालालजी म.सा. की तप-साधना और ज्ञान से पूज्य श्री गणेशाचार्य कितने प्रभावित थे यह उनके इस वक्तव्य से सहज ही परीलक्षित होता है।

उदयपुर का राजमहल जो मेवाड की आन-बान-शान का प्रतीक है, उसी राजमहल में हजारों की संख्या में उपस्थित श्रावक-श्राविकाओं, श्रमण-श्रमणियों के सम्मुख आसोज सुदी 2 संवत् 2009 को पूज्य श्री गणेशाचार्य ने मुनि श्री नानालालजी को युवाचार्य की चादर प्रदान की। यह क्षण सदैव चिरस्मरणीय रहेगा क्योंकि पूज्य गणेशाचार्य ने एक योग्य शिष्य को यह महत्वपूर्ण भार सौंपकर जिनशासन का बडा उपकार किया था। उपस्थित चतुर्विध संघ को यह पूर्ण विश्वास था कि युवाचार्य श्री नानालालजी म.सा. वास्तव में संघ को अपनी नेतृत्व क्षमता से नई ऊँचाई प्रदान करेंगे।

आचार्य पद की प्राप्ति

सं. 2019 माघ कृष्णा 2 को उदयपुर में पूज्य श्री गणेशाचार्य का संथारापूर्वक समाधिमरण हुआ तब युवाचार्य श्री नानालालजी म.सा. आचार्य पद पर आसीन हुए। यह वह समय था जब पूज्य श्री गणेशीलालजी म.सा. श्रमण संघ में साध्वाचार के विपरीत क्रिया को देखकर श्रमण संघ से विलग हुए ही थे और इसी समय युवाचार्य श्री नानालालजी म.सा. का आचार्य बनना तथा संघ को सम्यक प्रकार से मार्गदर्शन देना अत्यन्त कठिन था क्योंकि अनेक संघों को यह सहज में स्वीकार नहीं था कि आचार्य श्री नानालालजी म.सा. के नेतृत्व में साधुमार्गी जैन संघ शुद्धाचार के साथ गतिमान रहे। इस विपरीत वातावरण में भी आचार्य श्री नानालालजी म.सा. ने अपनी प्रखर प्रतिभा, आचार की पवित्रता और विचारों की गंभीरता से संघ को ऐसा नेतृत्व प्रदान किया जो आज भी सभी के मानसपटल पर चलचित्र की तरह अंकित है। अपनी विलक्षण प्रतिभा से वो संघ को नित नई ऊँचाईयाँ प्रदान करते गए।

आचार्यत्वकाल की विशिष्ट उपलब्धियाँ

आचार्य श्री नानालालजी म.सा. का आचार्यत्वकाल अनेक उपलब्धियों से परिपूर्ण रहा। आप अत्यन्त सरलमना थे। कथनी और करनी में कभी कोई अंतर आप में दिखाई नहीं देता था। संत-सती और श्रावक-श्राविका तो क्या नन्हें बालक के प्रति भी आपका व्यवहार देखने लायक था। जैन-अजैन सभी आपकी वाणी और व्यवहार से अत्यन्त प्रभावित होते थे। श्रमण जीवन अंगीकार कर आत्मकल्याण के साथ-साथ आपने परोपकार के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था।

समता दर्शन प्रणेता

विश्व में सर्वत्र हिंसा, आतंकवाद, गृहयुद्ध आदि की विभीषिका दृष्टिगोचर होती है। सर्वत्र विषमता, वैमनस्यता, विभेद, विघटन और विसंगति की प्रधानता दिखाई देती है। कहीं पर भी सुख-शांति, सौहार्द, स्नेह और सहकार की भावना देखने को नहीं मिलती। इस अशांत वातावरण को यदि कोई शांति का सौरभ प्राप्त करा सकता है तो वह है भगवान महावीर की अहिंसापरक समता। आचार्य श्री नानेश ने व्यक्ति से लेकर विश्व तक को इस अशांत वातावरण से शांत वातावरण प्राप्त करने हेतु समता-दर्शन की परिपालना करना आवश्यक बतलाया और इसे सकारात्मक रूप देने हेतु समता-दर्शन और व्यवहार पुस्तक में चार सिद्धान्त प्रतिपादित किए- समता सिद्धान्त दर्शन, समता जीवन दर्शन, समता आत्मदर्शन, समता परमार्थ दर्शन। आचार्य भगवन् ने संयमी मर्यादा के अनुरूप अपने उद्बोधन में समता दर्शन के इन चार सोपानों को मूल बिन्दू बनाकर समता समाज की स्थापना हेतु २१ सूत्रों के माध्यम से समता दर्शन की विशद् व्याख्या प्रस्तुत की। आचार्य श्री नानेश ने युगीन समस्याओं को समझा और अपने चिन्तन के धरातल पर इसके समाधान हेतु समता दर्शन को अपनाया। यदि विश्व के सभी राष्ट्र इस समता दर्शन को अपना लें तो विश्व में स्थायी शान्ति प्राप्त हो सकती है। वर्तमान आचार्य-प्रवर श्री रामेश अपने प्रवचन में फरमाते हैं कि आचार्य श्री नानेश ने समियाए धम्मे अर्थात् समता ही धर्म है, इस धर्म की विशद् व्याख्या करते हुए स्थापित किया कि समता-धर्मतत्त्व के रूप में बिन्दु से सिन्धु तक और कण से सुमेरू तक व्याप्त है। समता-योगी का संबोधन आचार्य श्री नानेश को यों ही नहीं मिला था। उन्होंने जीवनभर समता की साधना की थी, उसकी व्याख्या की थी और उसके दर्शन को स्थापित एवं लोकप्रिय तथा अनुकरणीय बनाने के लिए अथक प्रयास किये थे।

समीक्षण ध्यान योगी

विश्व में आज मनुष्यों में शरीर को स्वस्थ रखने की तीव्र अभिलाषा का परिणाम है कि ध्यान साधना की विविध पद्धतियाँ दृष्टिगोचर हो रही है। ध्यान की विविध प्रचलित पद्धतियों से जनमानस को संतोष प्राप्त नहीं हो पा रहा था क्योंकि ये सभी पद्धतियाँ मात्रा व्यक्ति के शारीरिक संतुलन तक ही सीमित थी किन्तु आचार्य श्री नानेश तो स्वयं महान ध्यान योगी थे। आपने ध्यान साधना की विलक्षण पद्धति समीक्षण ध्यान प्रस्तुत की जो व्यक्ति को शारीरिक संतुलन से आगे बढकर तनाव-मुक्ति के साथ-साथ आत्मशान्ति प्रदान कर सके। समीक्षण ध्यान साधना पद्धति को अपनाकर व्यक्ति अपना बाह्य एवं आभ्यंतर विकास कर सकता है।

संयम प्रदाता

आचार्य श्री नानेश ने अपने आचार्यत्वकाल में अनेक मुमुक्षु आत्माओं को जैन भागवती दीक्षा प्रदान कर उन्हें आगार से अनगार धर्म में प्रवेश करवाया। ऐसा करके उन्होंने जिनशासन की अपूर्व प्रभावना की। आपकी नेश्राय में कुल 59 संत एवं 310 सतियों ने जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की थी। एक साथ 2, 5, 7 दीक्षाएँ होना तो कई बार हुआ किन्तु एक साथ उदयपुर में 15, बीकानेर में 21 तथा रतलाम में 25 दीक्षाएँ होना कीर्तिमान ही माना जाएगा। तीर्थंकर भगवान महावीर के पश्चात् ऐसा कोई विवेचन सुनने में नहीं आया कि किसी एक आचार्य द्वारा एक साथ 15, 21 और 25 मुमुक्षु आत्माओं को जैन भागवती दीक्षा प्रदान की गई हो। आचार्यश्री के संयमी जीवन और सुदृढ क्रिया का ही परिणाम है कि अनेक मुमुक्षु उनके सानिध्य में संयमी जीवन अंगीकार करने को लालायित रहते थे।

धर्मपाल प्रतिबोधकः-

आचार्य भगवन् जब मालवा प्रान्त में विचरण कर रहे थे तब आपको ज्ञात हुआ कि यहाँ बहुसंख्यक बलाई जाति के लोग माँसाहार करते हैं। आचार्य भगवन् ने हिंसक कार्यों में प्रवृत्त ऐसे लोगों को सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने का मार्मिक उद्बोधन दिया। सन् 1963 के रतलाम चातुर्मास के उपरांत गुराडया ग्राम से धर्मपाल प्रवृत्ति का शुभारंभ हुआ जब आचार्य भगवन् के प्रवचन और उनके व्यक्तिगत आचरण से प्रभावित होकर हजारों बलाईयों ने माँसाहार का त्याग कर अपने जीवन को सदाचार की ओर प्रवृत्त करने का संकल्प लिया। ऐसे लोगों को धर्मपाल के नाम संबोधित किया गया। आचार्य भगवन् के इस क्रांतिकारी और ऐतिहासिक कार्य के लिए जनता ने आपको धर्मपाल प्रतिबोधक की उपाधि से विभूषित किया। धर्मपालों के उत्थान और उन्हें समाज की मुख्यधारा में जोडने हेतु संघ ने उस क्षेत्र में व्यापक प्रयास किए। इसी का परिणाम है कि आज धर्मपालों की संख्या हजारों से बढकर लाखों में पहुँच गई है। धर्मपालों के कल्याण हेतु दिलीपनगर रतलाम में छात्रावास एवं अन्य सेवा-प्रकल्प गतिमान हैं।

साहित्यिक उपलब्धि

आचार्य श्री नानेश ने विश्व को समता-दर्शन से परिचित कराने हेतु समता-दर्शन और व्यवहार नामक पुस्तक में अपना जो मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया, उससे यह पुस्तक सर्वत्र समादृत हुई है तथा इस पुस्तक के अनेक संस्करण विविध भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आचार्यश्री की वाचना और उनके प्रेरक उद्बोधनों को संकलित कर संघ द्वारा विविध साहित्य की रचना की गई है। जिनमें कर्मप्रकृति, गुणस्थान सिद्धान्त, क्रोध समीक्षण, मान समीक्षण, माया समीक्षण, लोभ समीक्षण, आत्मसमीक्षण, गहरी पर्त के हस्ताक्षर, कुंकुम के पगलिए, नल-दमयंती, जवाहराचार्य यशोविजयम् महाकाव्य आदि महत्त्वपूर्ण कृतियाँ है। साथ ही आचार्य भगवन् ने आचारांगसूत्र, भगवतीसूत्र, अंतकृतदशांगसूत्र एवं कल्पसूत्र आदि शास्त्रों की विशद् व्याख्या प्रस्तुत की। जैन धर्म एवं दर्शन के सार रूप में आचार्य भगवन् प्रणित जिणधम्मो पुस्तक जैन-अजैन सभी के लिए अत्यन्त उपयोगी पुस्तक है। इसके अतिरिक्त भी आचार्यश्री के प्रवचनों का संकलन कर संघ द्वारा विविध भाषाओं में बहुविध साहित्य प्रकाशित किया गया है।

युवाचार्य का चयन

प्रायः देखा गया है कि किसी भी धर्म के संस्थापक एवं धर्म प्रवर्तक महापुरूष के निर्वाण अथवा देहावसान के पश्चात् उनके संघ अथवा सम्प्रदाय में नेतृत्व के प्रश्न को लेकर बिखराव होना प्रारंभ हो जाता है, कभी-कभी यह बिखराव ऐसे महापुरुषों के जीवनकाल में भी हो जाता है। जैन संघ भी बिखराव की इस प्रक्रिया से विलग नहीं रह सका। जैन आगमों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि नेतृत्व एवं वैचारिक मतभेद की प्रक्रिया भगवान महावीर के जीवनकाल में ही प्रारंभ हो चुकी थी जब स्वयं महावीर के जामाता जमालि ने महावीर के संघ से पृथक होकर अपना नया सिद्धान्त बहुतरवाद चलाया। स्मृतिशेष आचार्य श्री नानालालजी म.सा. को भी अपने जीवनकाल में ही अपने ही कतिपय शिष्यों को उस समय संघ से निष्कासित/बहिर्भूत करना पडा जब उन्होंने युवाचार्य के चयन के उनके निर्णय को मानने से इनकार कर दिया था।

समता विभूति आचार्य-प्रवर श्री नानेश ने अपनी प्रखर प्रतिभा से अपने समस्त शिष्यों में से सर्वाधिक योग्य तरुण तपस्वी, सेवाभावी, आगममर्मज्ञ, व्यसनमुक्ति के प्रेरक मुनि श्री रामलालजी म.सा. को थार की मरुभूमि, मानव सभ्यता की उषाकाल की साक्षी, सारस्वत सभ्यता का हृदयस्थल, शौर्य, त्याग, बलिदान, विद्या अध्ययन का केन्द्र बिन्दू, सीमा प्रहरी की ऐतिहासिक नगरी बीकानेर के भव्य दूर्ग जूनागढ के राजप्रासाद में फाल्गुन शुक्ला 3, सं. 2048 तदनुसार 7 मार्च, 1992 को गौरव गरिमामण्डित श्रीसंघ के एक और नायक का चयन कर इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ पर आचार्य सुधर्मा के 82वें पट्टधर के रूप में युवाचार्य रूपी धवल चादर प्रदान की, जिसे मुनि श्री रामेश ने गुरुआज्ञा के रूप में स्वीकार किया। सन् 1992 से 1995 तक आचार्यश्री के इस निर्णय को लेकर शिष्यों में कोई मतभेद दृष्टिगोचर नहीं हुआ किन्तु सन् 1996 में आचार्यश्री के ही कतिपय शिष्य नेतृत्व की महत्त्वाकांक्षा को लेकर संघ से निष्कासित/बहिर्गमित हो गए। संघ में हुए इस घटनाक्रम से आंशिक ऊहापोह की स्थिति होना स्वाभाविक था किन्तु जीवन के अंतिम पडाव में भी आचार्य श्री नानेश ने उस स्थिति का समतापूर्वक न केवल सामना किया वरन् संघ को स्थिरता प्रदान की। आचार्य श्री नानेश द्वारा चयनित युवाचार्य श्री रामेश ने अपनी प्रखर प्रतिभा और दृढ क्रिया के आधार पर साधुमार्गी जैन संघ को जो ऊँचाईयाँ प्रदान की है और अनवरत कर रहे हैं वह श्लाघनीय है और उस आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्य श्री नानेश का युवाचार्य के रूप में मुनि श्री रामलालजी म.सा. का चयन सर्वाधिक सार्थक एवं सम्यक निर्णय था।

समाधिमरण एवं मुक्ति की प्राप्ति

जैन परम्परा के सामान्य आचार नियमों में संलेखना या संथारा (मृत्युवरण) एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। जैन गृहस्थ उपासकों एवं श्रमण साधकों दोनों के लिए समाधिमरण पूर्वक मृत्युवरण का विधान जैनागमों में उपलब्ध होता है। समाधिमरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है। जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। पहले को पंडितमरण कहा गया है, जबकि दूसरे को बाल (अज्ञानी) मरण कहा गया है। जीवन की संध्यावेला में सामने उपस्थित मृत्यु का जो स्वागत करता है और उसे आलिंगन देता है मृत्यु उसके लिए निरर्थक हो जाती है और वह मृत्यु से निर्भय हो जाता है तथा अमरता की दिशा में आगे बढ जाता है। जो साधक मृत्यु से भागता है वह सच्चे अर्थ में अनासक्त जीवन जीने की कला से अनभिज्ञ है। जिसे अनासक्त मृत्यु की कला नहीं आती उसे अनासक्त जीवन की कला भी नहीं आ सकती। इसी अनासक्त मृत्यु की कला को भगवान महावीर ने संलेखना/समाधिमरण कहा है। आचार्य नानेश ने जीवनपर्यन्त अपने आत्मबल पर संयमीचर्या का पालन करते हुए जिनशासन की गरिमा में अभिवृद्धि की और जीवन की संध्यावेला में सामने उपस्थित मृत्यु को शांत भाव से स्वीकार किया। छः माह से अधिक समय रहा होगा जब आफ स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट बढती जा रही थी और आपका शरीर क्षीण होता जा रहा था, इस स्थिति में भी आप आत्मलीन होकर मानो समाधि अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं, ऐसा प्रतीत होता था। अपनी अस्वस्थता से आचार्य भगवन् पूर्ण परिचित थे इसलिए वो युवाचार्य श्री रामेश को कई बार यह कह चुके थे कि अंतिम समय में मैं कहीं खाली हाथ नहीं चला जाऊँ। युवाचार्यजी सदैव उन्हें आश्वस्त करते रहते कि आप खाली हाथ नहीं जाएंगे, अंतिम समय में आपको समाधिमरण का प्रत्याख्यान अवश्य करवायेंगे। 27 अक्टूबर, 1999 की बात है, उदयपुर की पौषधशाला में जहाँ आचार्य भगवन् विराज रहे थे इस दिन उनके स्वास्थ्य में अत्यधिक गिरावट आई तब युवाचार्य भगवन् ने आचार्यश्री से पुछा कि क्या आपको संथारे का पच्चक्खाण करवा दें। आचार्य भगवन् ने इस हेतु तत्काल अपनी सहमति दी और पूर्ण सजग अवस्था में प्रातः 9:45 बजे तिविहार संथारा ग्रहण किया, पुनः चतुर्विध संघ की उपस्थिति में सायंकाल 5:30 बजे युवाचार्य श्री रामेश से चौविहार संथारा ग्रहण कर लिया, इसके साथ ही आचार्य-प्रवर पूर्ण शांति की अवस्था में समताभाव से आत्मसमाधि में लीन हो गए। वहाँ का दृश्य देखते ही बनता था। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका सभी अपने आराध्य आचार्य भगवन् के प्रति कितने समर्पित थे। संथारा पच्चक्खाण के साथ ही सतियाँजी म.सा. अपने स्थानक को प्रस्थान कर गए। किन्तु संत-मुनिराजों ने एक पल भी आचार्यश्री को अपनी आँखों से ओझल नहीं किया वरन् सभी आचार्यश्री के इर्द-गिर्द वहीं समुपस्थित रहे। युवाचार्य श्री रामेश की अपने आराध्य के प्रति आस्था और समर्पणा देखते ही बनती थी। पौषधशाला के बाहर भडभूजा घाटी एवं छबीला भैरूं मार्ग पर सैंकडों श्रावक-श्राविकाएँ जहाँ जगह मिली वहीं खडे रहकर आचार्यश्री के संथारा सीझने की प्रतिक्षा कर रहे थे। देश के विभिन्न प्रांतों से संघ पदाधिकारी एवं श्रावक-श्राविकाओं के आने का क्रम निरन्तर जारी रहा। आचार्य-प्रवर आत्मसमाधि की अवस्था में लीन थे। उनके शरीर में किसी प्रकार की कोई हलचल नहीं हो रही थी। जिस सजग अवस्था में आचार्य-प्रवर ने संथारा ग्रहण किया था उसी अवस्था में रात्रि 10:41 बजे पूर्ण समाधि के साथ उनकी आत्मा ने शरीर का त्याग कर दिया। आज आचार्य-प्रवर देह रूप में हमें उपलब्ध नहीं है किन्तु साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के हृदय में आज भी आचार्य-प्रवर विराजमान हैं। उनका शांत-सौम्य चेहरा और समतामय जीवन युगों-युगों तक जनमानस के श्रद्धा का केन्द्र रहेगा। आचार्य नानेश दया, करूणा, त्याग की जीवंत प्रतिमूर्ति थे।

आचार्य श्री नानेश के महाप्रयाण के पश्चात् कार्तिक बदी 3 वि.सं. 2056 को युवाचार्य श्री रामेश को उदयपुर में आचार्य पद की चादर ओढाई गई। आचार्य श्री रामेश ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का अनुसरण करते हुए संघ एवं जिनशासन की गरिमा में जो अभिवृद्धि की है तथा अनवरत कर रहे हैं, वह शिरसा श्लाघनीय है।